🔆 भगवान क्या है? 🔆
गोंड आदिवासी समाज बड़ादेव को "सल्ले" मातृशक्ति एवं "गंगरा" को पितृशक्ति के रूप में मानता है. इस आधार पर मातृशक्ति-पितृशक्ति अर्थात माता-पिता या उत्पत्तिकर्ता या पैदा करने वाला बड़ादेव है. चूंकि जीव के माता-पिता संतान पैदा करते हैं और संतान योनि से पैदा होते हैं, इसलिए संतान के लिए माता-पिता ही भगवान हैं. आदिवासी अपने माता-पिता की आत्मा को अपने घर में भगवान के रूप में स्थापित कर उनकी पूजा करता है. परिवार के द्वारा प्रतिदिन ग्रहण किए जाने वाले भोजन का प्रथम भोग उन्हें अर्पित करता है, उसके पश्चात ही वह स्वयं ग्रहण करता है. इसलिए आदिवासी समुदाय के लिए भगवान का और कोई स्वरूप नहीं है. दूसरे शब्दों में भगवान का अर्थ हर व्यक्ति जानता है- भग + वान = भगवान. भग अर्थात योनि, वान अर्थात चलाने वाला या निरंतरता बनाए रखने वाला या योनि से संतति उत्पन्न करने की शक्ति को बनाए रखने वाला "भगवान" है. इस तथ्य से माता-पिता ही भगवान हुए.
सम्पूर्ण आदिवासी समुदाय यह मानता है कि बड़ादेव द्वारा बनाए हुए प्रकृति के समस्त तत्व/संसाधन/जीव (गृह, नक्षत्र, जल, थल, नभ, वायु, अग्नि, चर-अचर, जीव-निर्जीव) प्राणीजीवन के अंग हैं, जीवनोपयोगी हैं. इसीलिए देव/देवी के रूप में माने जाते हैं तथा श्रृद्धाभाव से यथास्थान पूजा की जाती है.
🔆 देवी-देवता 🔆
परिवार के देवी और देवता के रूप में अपने पूर्वजों की जीवात्मा को स्थापित करने का रिवाज गोंड आदिवसी समाज की मूल परंपरा है. परिवार के माता-पिता (देवी-देवता) को घर के अंदर, जहां परिवार के सदस्यों के अलावा अन्य लोगों का कम आना-जाना हो, ऐसे पृथक एवं छोटे कमरे में स्थापित किया जाता है. देवालय (पेन ठाना) कक्ष परिवार के मुखिया (दादा, परदादा, बड़े पिता, बड़े भाई) किसी एक के घर में स्थापित होता है.
माता-पिता का जैसा व्यवहार होता है, वही व्यवहार हमारे पूर्वज देवी-देवताओं द्वारा हमारे साथ किया जाता है. जिस तरह माता-पिता प्रत्यक्ष रूप में सम्पूर्ण परिवार की रक्षा करते हैं, उसी तरह भौतिक देह को त्यागने के पश्चात भी उनकी जीवात्मा माता-पिता के स्वरुप में अप्रत्यक्ष रूप से परिवार की रक्षा करते हैं. वे ही परिवार के पूर्वज माता-पिता हैं.
माता-पिता (पूर्वज देवी-देवता) के साथ और भी देवी-देवताओं की स्थापना घर में की जाती है, जो हमारे जीवन में उपयोगी हैं. जैसे- बूढ़ीदाई, अन्न दाई (अन्नपूर्णा), पंडा-पंडिन (रोग-दोष/कलह-बाधाओं का निराकरण/दूर करने वाले), दुल्हा-दुलही देव (विवाह संस्कार के देव), सगा-सेरमी (परिवार के बाल-बच्चों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए जाने वाले सगा देव/विवाह सांस्कारिक संबंध के देव), मुख्य द्वार पर स्थापित नारायण देव, गौशाला में सांड-सांडीन आदि घर-आँगन, गौशाला के देवी-देवता है. इसी प्रकार खेत-खलिहान में भी ग्राम देवताओं के स्वरुप विद्दमान होते हैं, जिनकी पूजा खलिहान कार्य के अंत में किया जाते हैं.
गोत्रवार देवों की संख्या की मान्यता परिवार/कुनबा/कुटुंब का अहम हिस्सा है. गोंडी पुनेमी मुठवा (गोंडी घर्म गुरु) पहांदी पारी कुपार लिंगों द्वारा गोंड समुदाय को १२ सगा घटकों में विभाजित किया गया है. गोत्रवार १२ सगा घटक (१ से लेकर १२ देव संख्या) गोंड समुदाय के विभिन्न गोत्र/कुल चिन्ह वाले १२ समूह हैं. सगा देव संख्या १ से ७ देव सगा गोत्र समूहों के प्रत्येक समूह में १००-१०० गोत्र निर्धारित हैं तथा शेष ८ से १२ देव सगा गोत्र वाले प्रत्येक समूह में १०-१० गोत्र निर्धारित हैं. इस तरह प्रथम १ से ७ देव मानने वाले सगाओं के समूहों में ७०० गोत्र तथा शेष ८ से १२ देव मानने वाले सगा समूहों में ५० गोत्र निर्धारित हैं. इस प्रकार गोंड आदिवासी देव सगा गोत्र संख्या ७५० हुए. इस देव सगा गोत्र संख्या को सल्ले-गांगरा के प्रतीक के मूल में स्थापित किया गया है, जिसे गोंड आदिवासी समाज शुभांक मानता है तथा सुखी एवं समृद्ध जीवन की प्राप्ति हेतु इस अंक की देव प्रतीक के रूप में पूजा करता है. यह सम-विषम देव सगा गोत्र व्यवस्था गोंड आदिवासी परिवार एवं समाज में पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक व्यवस्था के अंतर्गत किए जाने वाले सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक कर्तव्यों के निर्वहन की जिम्मेदारी सुनिश्चित करता है.
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