श्राद्ध खाने नहीं आऊंगा कौआ 🐦बनकर , जो खिलाना है अभी खिला दे
श्राद्ध खाने नहीं आऊंगा कौआ बनकर!
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आँखों में आँसू ला देने वाली यह कहानी हमारे जीवन के सबसे बड़े सत्य को उजागर करती है...
"अरे भाई, बुढ़ापे का कोई इलाज नहीं होता। अस्सी पार हो चुके हैं। अब बस सेवा कीजिए।" डॉक्टर ने पिता जी को देखते हुए गंभीरता से कहा।
आँखों में आँसू ला देने वाली यह कहानी हमारे जीवन के सबसे बड़े सत्य को उजागर करती है...
"अरे भाई, बुढ़ापे का कोई इलाज नहीं होता। अस्सी पार हो चुके हैं। अब बस सेवा कीजिए।" डॉक्टर ने पिता जी को देखते हुए गंभीरता से कहा।
"डॉक्टर साहब! कोई तो तरीका होगा। आजकल तो साइंस ने बहुत तरक्की कर ली है। कुछ तो उपाय होगा।"
"शंकर बाबू! मैं अपनी तरफ से सिर्फ दुआ कर सकता हूँ। बस आप इन्हें खुश रखिए। यही सबसे बड़ी दवा है। और हाँ, इन्हें जो लिक्विड पसंद हो, वह पिलाते रहिए। इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं कर सकता।" डॉक्टर ने अपना बैग समेटा और मुस्कुराते हुए बाहर निकल गया।
डॉक्टर की बात सुनकर शंकर के मन में चिंता और बढ़ गई। उसे यह खयाल ही नहीं आता था कि उसके पिता के बिना भी जीवन हो सकता है। माँ के जाने के बाद पिता ही उसके जीवन का सहारा थे। वह अपने बचपन और जवानी के दिनों को याद करने लगा।
कैसे पिता हर रोज उसके लिए कुछ न कुछ अच्छा लेकर घर आते थे। चाहे कोई त्यौहार हो या सामान्य दिन, पिता उसकी हर छोटी-बड़ी ख्वाहिश पूरी करने की कोशिश करते थे। आज बाहर हल्की-हल्की बारिश हो रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे आसमान भी उसकी चिंता और दुख को समझ रहा हो।
शंकर ने खुद को संभालते हुए पत्नी से कहा, "सुशीला, आज सबके लिए मूंग दाल के पकौड़े और हरी चटनी बनाओ। मैं बाहर से जलेबी लेकर आता हूँ। बाबा को ये सब बहुत पसंद है।"
पत्नी ने पहले ही दाल भिगो रखी थी। वह भी तुरंत काम में लग गई। कुछ ही देर में रसोई से पकौड़ों की खुशबू आने लगी। शंकर जलेबियाँ ले आया और रसोई में रखकर अपने पिता के पास बैठ गया।
पिता का हाथ अपने हाथ में लेकर वह प्यार से बोला, "बाबा! आज आपकी पसंद की चीजें लाया हूँ। थोड़ी जलेबी खाएँगे?"
पिता ने आँखें झपकाईं और हल्की मुस्कान के साथ अस्फुट आवाज में बोले, "पकौड़े बन रहे हैं क्या?"
"हाँ, बाबा! आपकी पसंद की हर चीज अब मेरी भी पसंद है। सुषमा! जरा पकौड़े और जलेबी तो लाना।"
कुछ ही देर में सुशीला पकौड़े और जलेबी लेकर आई। शंकर ने एक पकौड़ा पिता के हाथ में देते हुए कहा, "लीजिए, बाबूजी।"
पिता ने थोड़ा खाया और मुस्कुराते हुए बोले, "बस... अब पूरा हो गया। पेट भर गया। जरा सी जलेबी दे।"
शंकर ने जलेबी का एक टुकड़ा तोड़कर पिता के मुँह में डाल दिया। पिता उसे प्यार से देखते हुए बोले, "शंकर, सदा खुश रहो, बेटा। मेरा दाना-पानी अब पूरा हुआ।"
"बाबा! आपको तो सेंचुरी लगानी है। आप मेरे तेंदुलकर हो।" शंकर की आँखों से आँसू बहने लगे।
पिता मुस्कुराए और बोले, "तेरी माँ पेवेलियन में इंतजार कर रही है। अगला मैच खेलना है। तेरा पोता बनकर आऊँगा, तब खूब खाऊँगा बेटा।"
पिता उसे देख रहे थे। शंकर ने उनकी प्लेट एक ओर रख दी। लेकिन पिता अब भी उसे एकटक देख रहे थे। उनकी आँखें भी नहीं झपक रही थीं। शंकर समझ गया कि उनकी यात्रा पूरी हो चुकी है।
तभी उसे याद आया कि पिता हमेशा कहा करते थे, "श्राद्ध खाने नहीं आऊँगा कौआ बनकर, जो खिलाना है अभी खिला दे।"
निष्कर्ष
माँ-बाप का सम्मान करें और उन्हें जीते-जी खुश रखें। जो सेवा और प्यार आप अभी दे सकते हैं, उसे कल पर न टालें। उनके साथ बिताए हर पल को संजोएं, क्योंकि यही पल आपको जीवनभर प्रेरणा और सुकून देंगे।
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