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आदिवासी देव मूल संस्कृति
आदिम समाज अपने संस्कारों में प्रकृति में व्याप्त समस्त संसाधनों, चार-आचार, तरल-ठोस, जीव-निर्जीव सभी को देव या देवी का अंश मानता है ।
संस्कारों के देवता, आदिम गुरु पहांदी पारी कुपार लिंगों की मानव समाजिक संरचना में ७५० कुल गोत्र देव सगा घटक निर्धारित किया गया है ।
प्रत्येक ७५० कुल गोत्र देव सगा घटकों के लिए देव स्वरूप अलग-अलग कुलचिन्हों की मान्यता का व्यापक उल्लेख मिलता है, जिसके अनुसार प्रत्येक कुल गोत्रज समुदाय के लिए कुल चिन्ह के रूप में एक पशु, एक पक्षी एवं एक वनस्पति (झाड़ या पौधे) का संरक्षण एवं संवर्धन आवश्यक माना गया है ।
प्रत्येक कुलचिन्हधारी गोत्रज के लोगों को अपने कुल चिन्हों (एक पशु, एक पक्षी एवं वनस्पति) को छोड़कर शेष सभी पशु, पक्षी एवं वनस्पति का सेवन या भक्षण करने का अधिकार है ।
इस तरह आदिम समुदाय के ७५० गोत्र धारक प्रत्येक गोत्र के ३ कुलचिन्हो के हिसाब से एक ओर प्रकृति के २,२५० पशु-पक्षी, जीव-जंतु, वनस्पति का संरक्षण भी करते हैं तथा दूसरी ओर भक्षक भी होते है ।
इस प्रकार प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने के लिए सांस्कारिक नियम का पालन करना अनिवार्य है ।
इस सांस्कारिक व्यवस्था अनुसार प्रत्येक कुल गोत्रज समुदाय अपने कुलचिन्हों का देव स्वरूप पूजा करता है
तथा उनका संरक्षण और संवर्धन भी ।
ऐसा नहीं करने वाला गंभीर सामाजिक अपराधी माना जाता है तथा सामाजिक दंड का भागी होता है ।
पुकराल में धरती के अलावा श्रृष्टि के संतुलन के लिए अनेक ग्रह, उपगृह, नक्षत्र एवं तारे आदि अपने-अपने पथ पर चलायमान हैं जो पूरी श्रृष्टि को किसी न किसी रूप में प्रभावित करते हैं ।
इनका पुकराल में स्थाईत्व एवं संचलन प्रकृति के जीवन का आधार है,इनका प्रभाव सम्पूर्ण जीवमंडल पर पड़े बिना नहीं रहता ।
अतः सम्पूर्ण जीवजगत को प्रभावित करने वाले ग्रह, नक्षत्र, तारे, जल, थल, वायु, आकाश, अग्नि, वन तथा अपने पूर्वजों की आदिम समाज द्वारा देवी-देवता के रूप में निम्नानुसार पूजा विधान की महत्ता मिलती है :-
(१) बड़ादेव
सम्पूर्ण आदिवासी समुदाय देव संस्कृति का ध्योतक है ।
आदिवासियों के देवों का मुखिया "बड़ादेव" है, वह श्रृष्टि रचयिता है, देवों का देव बड़ादेव है,वह निराकार एवं अजन्मा है,वह सर्वोच्च शक्ति है,वह तत्वों के उत्पत्तिकर्ता है,वह कण-कण में विराजमान है,उसका साक्षात्कार देवों से होता है,वह प्रकृति के सभी शक्तियों से बड़ा है ।
इस पुकराल एवं श्रृष्टि में बड़ादेव से बड़ा कोई देव/शक्ति नहीं हैं ।
गोंड आदिवासी समाज गोंडी में बड़ादेव को "सल्ले-गंगरा" शक्ति के नाम से स्तुति/सुमरन करता है, जिसका मतलब "धन एवं ऋण" शक्ति से है ।
इसी धनात्मक एवं ऋणात्मक शक्ति के जागृत/संयोग के कारण श्रृष्टि के स्वरुप का निर्माण हुआ तथा इसी शक्ति के कारण ही श्रृष्टि के समस्त संसाधनों का निर्माण, गृह-नक्षत्रों के संचलन की गति निर्धारित हुई ।
उदाहरण स्वरुप चुम्बक में समाहित धन एवं ऋण शक्ति को मान सकते हैं,चुम्बक के धन एवं ऋण शक्ति में आकर्षण एवं प्रतिकर्षण होता है,यही आकर्षण एवं प्रतिकर्षण शक्ति ही गुरुत्वाकर्षण शक्ति है जो सम्पूर्ण पुकराल में व्याप्त है ।
इसे हम उत्पत्ति एवं विनाश की शक्ति भी कहते हैं ।
सल्ले-गंगरा की शक्ति पुकराल के समस्त भौतिक-अभौतिक, चर-अचर, जीव-निर्जीव, ठोस-तरल सभी में व्यापक रूप से विद्दमान है ।
सल्ले-गंगरा शक्ति अर्थात "धन एवं ऋण" शक्ति ही "नर एवं मादा"शक्तियां हैं, जिनके मातृत्व एवं पितृत्व गुणों से संतति उत्पन्न होते हैं ।
अर्थात उत्पत्ति की शक्ति ही सल्ले-गंगरा या बड़ादेव है ।
संसाधनों की उत्पत्ति एवं अंत तथा जीवों का जन्म एवं मृत्यु प्रकृति के चक्रण का नियम है, जिसे हम जीवन चक्र या विज्ञान की भाषा में पारिस्थितिकी अथवा पारिस्थितिकीतंत्र कहते हैं ।
अतः श्रृष्टि की उत्पत्ति एवं विनाश का स्वरुप तथा सम्पूर्ण पुकराल की अनंत धन एवं ऋण शक्ति अथवा पितृत्व एवं मातृत्व शक्ति का ध्योतक बड़ादेव है ।
(२) देव
पुकराल में गृह, नक्षत्र, चाँद, तारे आदि सल्ले-गंगरा (धन एवं ऋण) शक्ति के गुरुत्वाकर्षण के कारण यथा स्थान स्थापित हैं, जिसके कारण वे अनंतकाल से अस्तित्व में हैं और रहेंगे ।
गृहों में सूर्य सम्पूर्ण श्रृष्टि को ऊर्जा एवं शक्ति प्रदान करते हुए संयमित, संतुलित तथा दीर्घायु जीवन प्रदान करता है और चाँद सूर्य की तपन रुपी कष्टदायक परिस्थितियों के पश्चात शीतलता, जो श्रृष्टि के समस्त संसाधनों, जीवों की सुरक्षा और शक्ति संतुलन बनाए रखने के लिए बड़ादेव की शक्ति से स्थापित है ।
पुकराल में सूर्य, चाँद, तारे आदि आकाश में चलायमान तथा पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र से बाहर हैं ।
वे निर्जीव है तथा उनमे उत्पत्ति की शक्ति (स्त्रित्व एवं पुरुषत्व गुण) का अभाव है ।
उनकी तेज एवं शक्तिशाली ऊर्जा तथा शीतलता प्राकृतिक जीवन व्यवहार को नियमित रूप से परिवर्तित, संतुलित एवं निरंतरता प्रदान करती है ।
सुदूर स्थित होने के बावजूद उनकी तेजस्विता एवं प्राणी जीवन में पड़ने वाली प्राणदायिनी प्रभाव के कारण उन्हें पुरुष रूप में देव माना गया है ।
आदिवासियों द्वारा इनकी पूजा देवों के रूप में की जाती है ।
(३) माता
सल्ले-गांगरा शक्ति जीव-निर्जीव, तरल-ठोस, चार-आचार सभी में व्याप्त है ।
प्रकृति शक्ति बड़ादेव ने प्राणियों में आकर्षण की शक्ति लिंगभेद के रूप में पुरुषत्व (धन शक्ति) तथा स्त्रित्व (ऋण शक्ति) प्रदान की है ।
प्राणियों में केवल मातृ एवं पितृ शक्ति ही बड़ादेव का प्रकृति को दिया हुआ बहुमूल्य वरदान है ।
इन्ही शक्तियों के मेल से जीव, निर्जीव, तरल एवं ठोस तत्वों की उत्पत्ति की निरंतरता के कारण श्रृष्टि का चक्रण होता है तथा अस्तित्व में है ।
अर्थात उत्पत्ति की शक्ति एवं मातृत्व का गुण जिसमे हो वह माता है ।
देव की अपेक्षा देवी (माता) संतति पैदा करने के साथ ही साथ पालन-पोषण, भोजन और सुरक्षा के अलावा देव की अपेक्षा मातृत्व के अनेक जिम्मेदारियों का निर्वहन करती है ।
माता संतति के लिए दयालु है,इसीलिए प्रकृति की देवी "धरतीमाता" अपने संतति (प्राणियों) को आँचल रुपी हरी-भरी वन, शुद्ध वायु, जल, भोजन और सुरक्षा प्रदान कर प्राणियों के
जीवन को संवारती और संरक्षण करती है ।
धरती के गर्भ में विभिन्न रंगों कि मिट्टियाँ, विभिन्न रंगों की कीमती धातुएं,
जीवनोपयोगी शुद्ध जल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है,मिट्टि के विभिन्न रंगों से हमारे घर आँगन निखरते है ।
इन प्राकृतिक रंगों में हमारा जीवन संस्कार झलकता है ।
उसी प्रकार बहुमूल्य तत्वों/पदार्थों/धातुओं के बगैर हमारे आदिम संस्कार अधूरे हैं ।
आदिम समाज इन बहुरंगी, कीमती धातुओं को बेचने के लिए नहीं बल्कि सांस्कारिक श्रृंगार के लिए इनका उपयोग करता था. आज परिवर्तनशील विकासवादी, स्वार्थी आधुनिक समाज ने इनकी उपयोगिता ही बदल दी है ।
धरती के गर्भ से निकालने के लिए वहां की वन संपदा, पहाड़, पर्वत, जलस्त्रोत आदि को नष्ट किया जा रहा है तथा क्रूरतापूर्वक इन्हें निकाल कर भू-गर्भ (धरती) को चरम सीमा तक क्षत-विक्षत कर रहा है ।
आज प्राकृतिक विनाशकारी तरीके से इन्हें निकालने और जमीन की उर्वरा शक्ति, वन संपदा को नष्ट करने का पाप कृत्य किया जा रहा है ।
इसका परिणाम (पाप का फल) हमें अवश्य मिलना शुरू हो गया है, जो ग्लोबल वार्मिग के रूप में पूरा संसार भुगत रहा है ।
संतति (मनुष्य) द्वारा धन-संपत्ति की प्राप्ति एवं स्वार्थपूर्ण विकास की अंधी दौड में शामिल होकर किए जाने वाले पाप (प्रकृति के स्वरुप एवं संतुलन बिगाड़ना/नष्ट करना सबसे बड़ा पाप) की सीमा चरम पर आ चुकी है ।
इस पाप के कारण श्रृष्टि स्वयं को संतुलित करने के लिए अपने विनाशकारी रौद्र स्वरुप को कई रूपों में प्रकट करना शुरू कर चुकी है, जिसका अंतिम परिणाम प्रकृति को नए स्वरुप में परिवर्तित करना ही हो सकता है ।
धरती, जल, वन को आदिवासियों द्वारा माता के रूप में प्रथम सुमरण/पूजा किया जाता है ।
घर पर माता-पिता (संतति के उत्पत्तिकर्ता) की पूजा के पहले वन एवं वनचरों की पूजा बाहरवासी के रूप में घर से बाहर किसी स्थान में की जाती है ।
इसका उद्देश्य यह है कि मनुष्य का आदिम जीवन संस्कार पूर्ण रूप से प्रकृति के वनसंपदा, खनिजसंपदा, जीव-जंतुओं, मिट्टी के रंग, पहाड़, पर्वत, नदी, झरने अदि पर निर्भर रहा है ।
इसीलिए इनका वह सम्मानपूर्वक सुमरण/पूजा करता है,
ताकि घर में रहने या घर से बाहर राह चलते या जंगल में रहने या किसी भी कार्य/परिस्थितियों में रहने पर वनों में रहने वाले जीव-जंतुओं तथा प्राकृतिक प्रकोप से मानव समाज की रक्षा हो ।
जिस प्रकार माता अपने बच्चों का लालन-पालन एवं समस्त आवश्यकताओं की पूर्ती करते हुए सुरक्षा भी करती है,
उसी प्रकार जल, थल, नभ एवं वन जीवों के जीवन की रक्षा एवं समस्त आवश्यक्ताओं की पूर्तिकर्ता जल, थल एवं वन होती हैं ।
अतः जल, थल, नभ, वनचरों के लिए जल, थल, वन, नभ एवं पवन दसेरी (दसो दिशाओं में व्याप्त हवा, प्राणवायु) माता के सामान हैं ।
इसीलिए आदिम मानव समुदाय द्वारा माता के रूप में जल, थल, वन, नभ एवं पवन दसेरी की प्रथम पूजा की जाती है, उसके पश्चात पूर्वजों की ।
इस श्रृष्टि के निर्माण तथा जीवनकाल की सम्पूर्णता प्रदान करने वाले जीवनतत्वों (जल, थल, अग्नि, वायु एवं आकाश) का प्राकृतिक विधानपूर्वक पूजा करना आदिवासीजनों का परम धर्म है ।
इन पूजा विधानों में प्रकृति, मौसम, रंग, वन, जीव, जल, थल, नभ, अग्नि, वायु संगत विभिन्न जीवन मन्त्रों का जाप (सुमिरन) किया जाता है ।
यही सुमिरन जीवनतत्वों को आकर्षित करने या सम्मानित करने का मुख्य विधान है, इस विधान से रोग-दोष से भी मुक्ति पाया जाता है ।
प्रकृति, देव-माता सुमिरन (पूजा) विधान से आदिवासियों में संकट, जीव-जंतु, मौसम, रंग, जल, थल, नभ, अग्नि, वायु, गृह-नक्षत्र वशीकरण आदि का ज्ञान धर्मार्थ एवं लोकहित में अभी भी जीवित हैं ।
यह अभिन्न ज्ञान सभी आदिवासीजनों में नहीं पाया जाता, बल्कि प्रकृति से व्यक्ति के स्वभाव के साथ अंतर्मन में स्वमेव विकसित होती है ।
इस ज्ञान की परम्परा गुरु परम्परा में प्रचलित है, जिसका संवाहक दल विशष्ट जीवनशैली का निर्वहन करता है ।
इसका अप्रत्यक्ष प्रयोग, पंचतत्व यौगिक संरचना एवं गुणों में सुधार के माध्यम से जनकल्याण के लिए किया जाता है ।
इस अंतर्ज्ञान को एहसास करने का ज्ञान, विज्ञान के पास भी नहीं है ।
यह ज्ञान विज्ञान से परे है, सीमा से बाहर है, इसीलिए इसे "पराविज्ञान" कहा जाता है ।
विज्ञान के द्वरा बनाए गए मिसाईलों का निशाना चूक सकता है, लेकिन पराविज्ञान की मिसाईलों का निशाना श्रृष्टि के किसी भी कोने के लिए अचूक है ।
विज्ञान का एक लाख परमाणु भी पराविज्ञान के एक अणु के बराबर नहीं है,इसकी प्रयोगशाला विज्ञान की प्रयोगशाला नहीं है,इस श्रृष्टि में पराविज्ञानी जहां कदम रखता है वहीँ उसका प्रयोगशाला बन जाता है ।
अर्थात श्रृष्टि का प्रत्येक कोना उसकी प्रयोगशाला है. इस ज्ञान का अंतिम अप्रत्यक्ष प्रयोग ही अंत है ।
(४) महादेव
आदिम संस्कारों में महादेव के मान मर्यादा का स्थान ऊर्ध्व स्थिति में बड़ादेव और बूढ़ादेव के मध्य रखा गया है ।
आदिम साहित्यों में उल्लेख मिलता है कि धरती पर मानव समाज/कुल/कुटुंब बना एवं वंश विस्तार हुआ, तब सयुंगार द्वीप अर्थात पंचखण्ड धरती या पांच खण्ड के महाद्वीप (गोंडवाना लैण्ड) के महामानव समाज के मुखिया/राजा शंभूसेक/शंभू मा दाव (महादेव) हुए ।
पांच महाद्वीपों का समूह, सयुंगार द्वीप (गोंडवाना लैण्ड) के मुखिया/राजा अर्थात पांच महाइंद्रियों के स्वामी अर्थात धरती के स्वामी के रूप में शंभू-मा-दाव का कालान्तर में शंभू महादेव नाम प्रयुक्त हुआ ।
इस धरती पर ८८ पीढ़ी शंभू मा दावों (महादेवों) की हुई ।
प्रथम पीढ़ी में शंभू-मूला, मध्य पीढ़ी में शंभू-गवरा एवं अंतिम पीढ़ी में शंभू-पार्वती (हिन्दु धार्मिक ग्रंथों के अनुसार "शंकर-पार्वती") हुए ।
गोंडवाना के सभी ८८ शंभूओं की पीढ़ी में शंभू-गवरा सर्वाधिक पसिद्ध हुआ ।
इनके अलावा इन पीढ़ियों में शंभू-रैय्या, शंभू-तुलसा, शंभू-अनादि, शंभू-ठम्मा, शंभू-बेला, शंभू-सति, शंभू-उमा आदि अनेक नाम मिलते है ।
इस गोंडवाना गणराज्य में इन ८८ शंभू महादेवों (राजाओं) का लगभग १०,००० वर्ष का काल बताया गया है ।
शंभू महादेवों के इस काल में सम्पूर्ण श्रृष्टि (जल, थल, अग्नि, वायु, आकाश) के सात्विक एवं तात्विक तथा श्रृष्टि की गोद में उत्पन्न समस्त जीवों एवं वनस्पतियों के जैविक एवं व्यावहारिक गुणों का ज्ञान प्राप्त कर लिया गया था, जिसके आधार पर श्रृष्टि के कालचक्र के समयानुकूल जीवों, वनस्पतियों एवं मानव के साथ व्यवहारिक जीवन का पारिस्थितिकीय संबंधसूत्र स्थापित किया गया ।
मानव के व्यवहारिक जीवन के साथ प्रकृति के पंचतत्वों, जीवों, वनस्पतियों का प्राकृतिक एवं मानवीय महत्ता तथा उपयोगिता के आधार पर उन्हें जीवन संस्कारों में स्थान दिया गया ।
यह काल मानव संस्कृति के अनुसंधान, अध्ययन एवं निर्माण का चरमकाल माना जाता है, जिसके आधार पर मानव समाज को सामाजिक, सांस्कारिक, समृद्ध एवं श्रृष्टि के समान दीर्घजीवन जीने के लिए मूल स्वरूप प्रदान किया गया ।
इस तरह सम्पूर्ण मानव समाज को श्रृष्टि के साथ समस्त सामाजिक, सांस्कारिक अंगों से समन्वय स्थापित करते हुए जीवन जीने का ज्ञान दिया गया, जिसके कारण "मानुष", मनुष्य कहलाया. इसीलिए गोंड आदिवासी समाज विभिन्न सामाजिक, धार्मिक, सांस्कारिक कार्यों के संचलन के पूर्व अपने पूर्वज, देवी-देवताओं, शंभूओं की जोड़ी को अरुंग अरुंग शंभू/हर-हर महादेव कहकर स्तुति करते हैं ।
जीवन में सुख समृद्धि एवं सुरक्षा के लिए अथवा शुभ एवं धार्मिक कार्यों की शुरुवात तथा संचलन की निरंतरता और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए अरुंग अरुंग शंभू/हर-हर महादेव (सभी ८८ शंभूओं की जय हो) कहकर स्तुति करते हैं ।
शंभू-पार्वती के अंतिम काल में ही गोंडवाना की धरा पर घुमंतू मानव जाति, आर्यों (युरेशियनो) का आगमन हुआ. उनके साथ स्त्रियाँ नहीं थी ।
वे पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवनशैली के संवाहक कदापि नहीं थे ।
(५) बूढ़ादेव
देखने और सुनने में आता है कि आदिवासीजन बड़ादेव और बूढ़ादेव को एक ही देव मान लेते हैं ।
बड़ादेव और बूढ़ादेव के ज्ञान, मान्यता और महत्ता में में बहुत बड़ा फर्क है ।
मानव में एक ही अंग की कमी/फर्क के कारण समाज उसे पुरष नहीं मानता. उसी प्रकार बड़ादेव और बूढ़ादेव के स्थायित्व, सांस्कारिक और अध्यात्मिक दर्शन में बहुत बड़ा फर्क है ।
बड़ादेव के संबंध में पूर्व में उल्ले किया जा चुका है ।
बड़ादेव आदि और अनंतशक्ति का ध्योतक है, जिसकी शक्ति की कोई सीमा नहीं है,वह निराकार, सर्वशक्तिमान एवं सर्वव्यापी है,वह पुकराल/श्रृष्टि के रचयिता है,वह कण-कण में विराजमान है ।
देव-देवियों, पुकराल/श्रृष्टि एवं शरीर के प्रत्येक कण के अंश में बड़ादेव की शक्ति व्याप्त है ।
बड़ादेव से बड़ा और कोई देव/ईश्वर नहीं है ।
हमें बड़ादेव और बूढ़ादेव में अंतर को समझना होगा, अन्यथा हम अपने आने वाली पीढ़ी को इनकी संरचना/स्थायित्व, सांस्कारिक महत्व और अध्यात्मिक दर्शन का हस्तान्तरण नहीं कर पायेंगे ।
आदिवासियों की परम्परा अनुसार बूढ़ादेव सभी गोत्रज/कुल/पुरखा/कुनबा का देव है ।
इसे प्रतीक के रूप में सिर्फ साजा झाड़ के मूल में स्थापित किया जाता है ।
सवाल अब यह भी उठता है कि इसे साजा झाड़ में ही स्थापित क्यों किया जाता है, अन्य झाड़ों में क्यों नहीं ?
इसे घर में क्यों स्थापित नहीं किया जाता ?
उपरोक्त के संबंध में समाज की प्राकृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक दर्शनों की मान्यता है कि साजा का झाड़ तूफान, बारिस, भूमि कटाव की स्थिति में भी उसके जड़ अतिमजबूती से जमीन को जकड़े रखते हैं, जो उसकी हर कठियाईयों की स्थिति में भी अडिगता और ठहराव की निशानी है ।
इसके मोटे, बड़े आकार के पत्ते धूप और बारिस से भी जमीन का संरक्षण करते हैं ।
इसके फल दुनिया के नक्शे की बनाई गई अंडाकार द्वीध्रुवीय आकृति के समान दिखाई देता है ।
इस फल में ऊर्ध्वाकार पांच पोर (धारियां) विकसित होते हैं,इन पांच पोरों (धारियों) की बनावट और संख्या में श्रृष्टि के पंचतत्व, गोंडवाना के पांच खण्ड भू-भाग के सत्व-तत्व का दर्शन मिलता है, जो श्रृष्टि की उत्पत्ति, जीवनचक्रण एवं जैविकीय पारिस्थितिकी के लिए पूर्ण है ।
इसीलिए इसे साजा झाड़ के मूल में स्थापित किया जाता है ।
वर्तमान में वनों के विनाश और साजा झाड़ की उपलब्धता की कमी के कारण महुआ आदि
झाड़ों में भी स्थापित किए जाते हैं ।
दूसरी मान्यता यह है कि इसे आदिवासीजन घर पर ही स्थापित कर विधानपूर्वक पूजा करते थे, उसे भोग चढाते थे ।
देवताओं के भोग और परिवार के लिए भोजन आज भी घर की मातृशक्तियाँ ही तैयार करती हैं ।
तैयार भोजन सबसे पहले देवताओं को अर्पित किया जाता है ।
एक बार बूढ़ादेव के पूजा के दिन खाना बनाने वाली मातृशक्ति की ऋतुचक्र (मासिक चक्र) शुरू हो गया,उन्हें इस समयावधि का ध्यान ही नहीं रहा,भोजन बन चुका था ।
अब भोग लगाया जाता उसके पहले बूढ़ादेव को इस तथ्य का अंतर्ज्ञान हो जाने के कारण वे भोग के कार्य से लोगों का ध्यान हटाने के लिए घर से बाहर चले गए ।
लोगों को समझ नहीं आ रहा था कि बूढ़ादेव घर से बहार क्यों चले गए,परिवार, कुल, कुनबा के लोगों ने उन्हें समझाने का प्रयास किया, किन्तु अंततः वे घर वापस नहीं आए और पास में स्थित साजा झाड़ के नीचे बैठकर लोगों को श्रृष्टि में "अंश श्रृजन" की पूर्व प्रक्रिया (मातृशक्ति के ऋतु परिवर्तन की मानव सांस्कारिक जीवन में महत्ता)/घटनाचक्र पर सार्थक उपदेश दिया ।
तभी से बूढ़ादेव को घर के बाहर साजा झाड़ के नीचे ही भोग लगाया जाता है ।
इस घटना और उनके उपदेशों के पश्चात बूढ़ादेव के भोग तथा कुनबा को खाना खिलाने के लिए पुरुष ही खाना बनाते हैं, मातृशक्तियाँ नहीं ।
आज भी गोंड आदिवासी समाज में मातृशक्तियाँ ऋतु परिवर्तन की समयावधि तक भोजन नहीं बनातीं. रसोई और पेन-ठाना में भी प्रवेश नहीं करतीं ।
मातृशक्तियों में ऋतु परिवर्तन की प्रक्रिया ३-५ दिन में पूरी होती है. इस अवधि में घर के पुरुष सदस्य या दूसरे सदस्य खाना बनाते हैं ।
इस अवधि तक परिवार के प्रधान सदस्य किसी दूसरे कुनबे या परिवार के शुभ कार्यों में शामिल नहीं होते. इस अवधि में ब्रम्हचर्य का पालन किया जाता है ।
गोत्र सगावार कुलदेव बूढ़ादेव की स्थापना के पूर्व निश्चित स्थान पर विधानपूर्वक साजा का पौधा रोपण किया जाता है
या प्राकृतिक रूप से विकसित पौधे को चिन्हांकित कर लिया जाता है ।
उसके पश्चात धार्मिक विधि-विधान से बूढ़ादेव को स्थापित किया जाता है,बूढ़ादेव स्थापित साजा के झाड़/पेड़ को किसी भी रूप नुकसान पहुँचाना या काटना पूर्णरूप से वर्जित होता है ।
यदि कोई जानबूझ उसे नुकसान पहुचाता है या काटता है तो उसे जीवन में भारी कलह का सामना पड़ता है,आज भी इस बात की सत्यता को झुठलाया नहीं जा सकता ।
आदिवासीजनों की मान्यता है कि इस देव परम्परा/संस्कृति में बूढ़ादेव उनके कुल-गोत्र/कुनबा का पहला व्यक्ति है
जो, बूढ़ा होकर अपना भौतिक देह त्याग चुका है ।
उसकी जीवात्मा को अपने कुल/कुनबा/पूर्वज/देव के रूप में साजा के झाड़ के मूल में स्थापित कर दिया गया ।
उस पहले व्यक्ति से लेकर अब तक अपने भौतिक स्वरुप को त्यागने वाले कुल/कुटुंब/परिवार के पत्येक सदस्य की जीवात्मा को धार्मिक विधि-विधानपूर्वक स्थापित कर दिए गए हैं एवं यह निरंतरता अनंतकाल तक चलती रहेगी ।
गोंड आदिवासियों के कुल-गोत्र/कुनबा/कुटुंबवार अलग-अलग बूढ़ादेव स्थापित किए जाते हैं, किन्तु पूजा विधान समान होता है ।
गोत्र एवं देव सगा संख्या अनुसार पितृ आत्माओं को भोग दिए जाने हेतु साजा के पत्तों में हिस्से रखकर उन्हें सुमिरन करते हुए सभी हिस्सों से ५-५ निवाले अर्पित किए जाते है ।
इस देव सगा संख्या के आधार पर गोत्र अनुसार परिवार को अपने ही गोत्र/कुल/कुटुंब के अन्य स्थान पर रहने वाले परिवार/कुल-गोत्र/सगा के बूढ़ादेव में अपने पूर्वजों को शामिल कर सकता है, बशर्ते वह उसी कुल-गोत्र/देवसंख्या का सगा हो ।
जैसे- परतेती गोत्र का पांच देव सगा दुनिया के किसी अन्य स्थान में रहने वाले परतेती गोत्र वाले पांच देव सगा के बड़ादेव पेनठाना में शामिल होकर अपने परिवार के पूर्वजों को विधानपूर्वक शामिल कर सकता है ।
पूर्व के देवगढ़, गढ़ियों में सीमित परिवार होने से लोग एक साथ बूढ़ादेव की पूजा करते थे. कालान्तर में परिवारों की संख्या में विस्तार होकर दूर-दराज, अलग-अलग गावों, कस्बों में व्यवस्थित होने के कारण अपनी सुविधानुसार अपने गाँव तथा परिवार के वरिष्ठतम सदस्य वाले कुनबे के गावों में बूढ़ादेव स्थापित कर लिए ।
सुविधानुसार उसी कुल/परिवार के वरिष्ठतम सदस्य को विधानपूर्वक बूढ़ादेव स्थापित करने की पात्रता होती है ।
बूढ़ादेव की पूजा कार्य के लिए पूजा-पद्धति के जानकार उसी कुल/कुनबा/परिवार के व्यक्ति को पुजारी का पदभार दिया जाता है तथा पूजा का कार्य सम्पन कराया जाता है ।
इस कार्य के लिए कुल का पूरा परिवार सहयोग करता है ।
(६) भगवान
गोंड आदिवासी समाज बड़ादेव को "सल्ले" मातृशक्ति एवं "गंगरा" को पितृशक्ति के रूप में मानता है ।
इस आधार पर मातृशक्ति-पितृशक्ति अर्थात माता-पिता या उत्पत्तिकर्ता या पैदा करने वाला बड़ादेव है ।
चूंकि जीव के माता-पिता संतान पैदा करते हैं और संतान योनि से पैदा होते हैं,
इसलिए संतान के लिए माता-पिता ही भगवान हैं ।
आदिवासी अपने माता-पिता की आत्मा को अपने घर में भगवान के रूप में स्थापित कर उनकी पूजा करता है ।
परिवार के द्वारा प्रतिदिन ग्रहण किए जाने वाले भोजन का प्रथम भोग उन्हें अर्पित करता है, उसके पश्चात ही वह स्वयं ग्रहण करता है,इसलिए आदिवासी समुदाय के लिए भगवान का और कोई स्वरूप नहीं है ।
दूसरे शब्दों में भगवान का अर्थ हर व्यक्ति जानता है- भग + वान = भगवान. भग अर्थात योनि, वान अर्थात चलाने वाला या निरंतरता बनाए रखने वाला या योनि से संतति उत्पन्न करने की शक्ति को बनाए रखने वाला "भगवान" है ।
इस तथ्य से माता-पिता ही भगवान हुए ।
सम्पूर्ण आदिवासी समुदाय यह मानता है कि बड़ादेव द्वारा बनाए हुए प्रकृति के समस्त तत्व/संसाधन/जीव (गृह, नक्षत्र, जल, थल, नभ, वायु, अग्नि, चर-अचर, जीव-निर्जीव) प्राणीजीवन के अंग हैं, जीवनोपयोगी हैं ।
इसीलिए देव/देवी के रूप में माने जाते हैं तथा श्रृद्धाभाव से यथास्थान पूजा की जाती है ।
(७) माता-पिता (परिवार के देवी-देवता)
परिवार के देवी और देवता के रूप में अपने पूर्वजों की जीवात्मा को स्थापित करने का रिवाज गोंड आदिवसी समाज की मूल परंपरा है ।
परिवार के माता-पिता (देवी-देवता) को घर के अंदर, जहां परिवार के सदस्यों के अलावा अन्य लोगों का कम आना-जाना हो, ऐसे पृथक एवं छोटे कमरे में स्थापित किया जाता है ।
देवालय (पेन ठाना) कक्ष परिवार के मुखिया (दादा, परदादा, बड़े पिता, बड़े भाई) किसी एक के घर में स्थापित होता है ।
माता-पिता का जैसा व्यवहार होता है, वही व्यवहार हमारे पूर्वज देवी-देवताओं द्वारा हमारे साथ किया जाता है ।
जिस तरह माता-पिता प्रत्यक्ष रूप में सम्पूर्ण परिवार की रक्षा करते हैं, उसी तरह भौतिक देह को त्यागने के पश्चात भी उनकी जीवात्मा माता-पिता के स्वरुप में अप्रत्यक्ष रूप से परिवार की रक्षा करते हैं ।
वे ही परिवार के पूर्वज माता-पिता हैं ।
माता-पिता (पूर्वज देवी-देवता) के साथ और भी देवी-देवताओं की स्थापना घर में की जाती है, जो हमारे जीवन में उपयोगी हैं ।
जैसे- बूढ़ीदाई, अन्न दाई (अन्नपूर्णा), पंडा-पंडिन (रोग-दोष/कलह-बाधाओं का निराकरण/दूर करने वाले), दुल्हा-दुलही देव (विवाह संस्कार के देव), सगा-सेरमी (परिवार के बाल-बच्चों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए जाने वाले सगा देव/विवाह सांस्कारिक संबंध के देव), मुख्य द्वार पर स्थापित नारायण देव, गौशाला में सांड-सांडीन आदि घर-आँगन, गौशाला के देवी-देवता है ।
इसी प्रकार खेत-खलिहान में भी ग्राम देवताओं के स्वरुप विद्दमान होते हैं, जिनकी पूजा खलिहान कार्य के अंत में किया जाते हैं ।
गोत्रवार देवों की संख्या की मान्यता परिवार/कुनबा/कुटुंब का अहम हिस्सा है ।
गोंडी पुनेमी मुठवा (गोंडी घर्म गुरु) पहांदी पारी कुपार लिंगों द्वारा गोंड समुदाय को
१२ सगा घटकों में विभाजित किया गया है ।
गोत्रवार १२ सगा घटक (१ से लेकर १२ देव संख्या) गोंड समुदाय के विभिन्न गोत्र/कुल चिन्ह वाले १२ समूह हैं ।
सगा देव संख्या १ से ७ देव सगा गोत्र समूहों के प्रत्येक समूह में १००-१०० गोत्र निर्धारित हैं तथा शेष ८ से १२ देव सगा गोत्र वाले प्रत्येक समूह में १०-१० गोत्र निर्धारित हैं ।
इस तरह प्रथम १ से ७ देव मानने वाले सगाओं के समूहों में ७०० गोत्र तथा शेष ८ से १२ देव मानने वाले सगा समूहों में ५० गोत्र निर्धारित हैं ।
इस प्रकार गोंड आदिवासी देव सगा गोत्र संख्या ७५० हुए. इस देव सगा गोत्र संख्या को सल्ले-गांगरा के प्रतीक के मूल में स्थापित किया गया है, जिसे गोंड आदिवासी समाज शुभांक मानता है तथा सुखी एवं समृद्ध जीवन की प्राप्ति हेतु इस अंक की देव प्रतीक के रूप में पूजा करता है ।
यह सम-विषम देव सगा गोत्र व्यवस्था गोंड आदिवासी परिवार एवं समाज में पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक व्यवस्था के अंतर्गत किए जाने वाले सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक कर्तव्यों के निर्वहन की जिम्मेदारी सुनिश्चित करता है ।
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