कोया गोंडी धर्म के बारे में संक्षिप्त वर्णन। ~ जय सेवा जय बड़ादेव जय गोंडवाना/ Jai Seva Jai Gondwana

कोया गोंडी धर्म के बारे में संक्षिप्त वर्णन।

माता कली कंकाली अर्थात जंगो रायतार माता के आश्रम के बारह पुत्र कालांतर में कोया पुनेम के आदि धर्म गुरु पहांदीपारी कुपार लिंगों के शिष्य बने । उनका देव सगा गोत्र विभाजन की प्रक्रिया ऐसा रहा- 

                               सावरी (सेमर) वृक्ष के पत्तियों के गुट समूहानुसार और सूर्य माला के ग्रहों की रचनाधार पर क्रमशः उन्दाम, चिन्दाम, कोन्दाम, नाल्वेन, सैवेन, सार्वेन, येर्वेन, अर्वेन, नर्वेन, पदवेन, पार्वूद और पार्र्ड किया. प्रथम सात देव-सगा धारकों में सात सौ (७००) कुल गोत्र नाम है। कोआकाशी, शेंदरी, जामूनी, नीला, हरा, पीला, और लाल रंग का वस्त्र दिया और शेष पांच सगाओं (भूमक शाखा सगा) के केवल पचास (५०) कुल गोत्र नाम है, को सूर्य प्रकाशी (पुरवा तिरेपी) अर्थात सफेद रंग का वस्त्र दिया. अपने सभी शिष्यों को धर्म गुरु पारी कुपार लिंगों ने सगा-गोंगो बाना से सुसज्जित कर गोंएन्दाडी (गोंएंडी, गोंडी) भाषा में कोया पुनेम ज्ञान की दिव्य ज्योति दी । वे ही मूल मानव-समाज कालांतर में कोयावंशीय सगा-जगत के कुल-देवताएं अर्थात मूल पुरुष कहलाये । वंशोत्पत्ति के लिए स्त्री सत्व भी आवश्यक तत्व है, जो विज्ञान सम्मत महत्वपूर्ण ज्ञान तथ्य है, इसलिए कोयतूर-जगत में बारह कुल-देवियाँ अर्थात मूल स्त्री सत्व को भी कुल-देवता ही कहा गया, यही कुल देवी देवताएं ही आज कोयतूर-जगत में व्याप्त मूल चौबीस कुल-देवताओं की बहुप्रशंसित तथ्यपूर्ण संख्या रहा और है। 


                                  कोयावंशीय मानव जगत में, जब कोयापुनेमी प्रचार-प्रसार का कार्य सम्पन्न हो चुका, इसके अलावा सगा-संबंध प्रस्थापित प्रक्रिया में कठिनाईयां उत्पन्न होने लगी तब कोयतूर जगत में व्दितीय पुनेम मुठवाशय लिंगों (रावेण पोन्याल) ने कालांतर में बारह मूलसगा देवी (जंगो रायतार माता शाखा के एक, दो और तीन देव. आदि धर्म गुरु कुपार लिंगों शाखा के चार, पांच, छ:, सात देव. इन सात सगा देवों के भुमक शाखा के आठ, नौ, दस, ग्यारह और बारह देव) को सामाजिक और धार्मिक दर्शन में सगा समायोजन की विलीनीकरण के महत्वपूर्ण प्रक्रिया को, आदि धर्म गुरु पहांदीपारी कुपार लिंगों से मूल-सिद्धांत सम और विषम देव-संख्या के भावना के अन्तर्गत संपन्न किया, जिसमे उन्होंने धर्म गुरु कुपार लिंगों शाखा के मूल चार कुल सगा देवताओं को हरेक सगा देवता के साथ सगा समायोजन प्रक्रिया को सम्पन्न किये, जिसमे एक सगा देव भूमक शाखा से और दूसरा सगा देव जंगो रायतार माता शाखा से लिया गया जो मूल सात सौ पचास (७५०) कुल गोत्र नामों में सगा समायोजन की प्रक्रिया निम्नांकित है :-  


             (१) चार देव के साथ + दस देव शाखा + दो देव शाखा - १०० + १० + १०० = २१०  

             (२ ) पांच देव से साथ + नव देव शाखा + एक देव शाखा - १०० + १० + १०० = २१०  

             ( ३) छ: देव के साथ + आठ देव शाखा + बारह देव शाखा - १०० + १० + १० = १२०   

               (४) सात देव के साथ + ग्यारह देव शाखा + तीन देव शाखा - १०० + १० + १०० = २१०  

                कुल योग = ७५०  


                 गोंडवाना भूखंड में मूलनिवासी गोंडी-भाषिक धरती-पुत्रों को अपने गोंडी-जगत में, गुरु-कृपा ने आदि-काल से ही हमारे सगा समाजिक संरचना में, इस अदभुत दिव्य ज्ञान-शक्ति गोंडी तत्वज्ञान में फड़ापेन शक्ति का दर्शन, गोंडवाना कुल-देवता की सैद्धांतिक मान्यता पर आधारित हमारे चौबीस मूल वंशोत्पादक कुल-देवता का दर्शन,सगा देव धारकों के कुल-गोत्र नाम और कुल गोत्र चिन्ह का दर्शन, सगा देव बाना अर्थात सगा धर्म ध्वज का

दर्शन, सम-विसम सगा-गोत्र और कुल चिन्ह के सगा-शाखाओं में ही वैवाहिक संबंध प्रस्थापित करने का दर्शन,

सम-विसम गोत्र नाम और सम-विसम कुल चिन्ह से धारकों के माध्यम से ही प्रकृति-संतुलन करने का दर्शन,

इत्यादि इस मौलिक गोंडी तत्वज्ञान को गुरु-शिष्य परम्परानुसार ही, इस दर्शन को व्यव्हारिक रूप से

व्यवस्थापित किया था और है. गोंडी लोक साहित्य में बिखरे अनमोल मोती, जो आज उसकी स्पष्ट पुष्टि करती है

और सगा-जगत के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण विचारणीय तथ्य चार संभाग के भूखण्ड, चार वंश के मानव, चार

गोंडी तत्वज्ञान के महामानव धर्म गुरु, बारह मूल सगा देवों के समायोजन प्रक्रिया के उपरान्त (प्रकियोपरांत)

कालान्तर में चार मूल सगा देव शाखाओं की मान्यता, इत्यादि मौलिक तत्व भी आज उपलब्ध करती है।

 गोंडी तत्वज्ञान और तथ्य से भली भांति सगा-जगत आज पुनर्परिचित हो गये ही होंगे, ऐसा हमारी समझ है ।

चार अंक संख्या की यह बहुचर्चित और सोचनीय तथ्यात्मक प्रशंग है जो निसंदेह आज सगा–जगत के लिये अत्यंत

महत्वपूर्ण प्रश्न-चिन्ह होगी । क्योंकि बारह मूल सगा देवों की समायोजन प्रक्रिया के कालान्तर में उभरी, यह हमारे

मूल कुल देवताओं की बहू प्रशंसित चौबीस संख्या की ही सिर्फ गणनात्मक मान्यताओं का सूचक-संख्या रही

होगी और है । धर्म गुरु कुपार लिंगों शाखा के मूल चार, पांच, छ: और सात सगा देवों की अंक संख्या को जोड़े तो

सिर्फ बाईस-सगा देवों की संख्या हमे मिलती है. उसमे हमारे अन्य आठ मूल सगा-देव शाखाएं भी मूल गोंडी

सिद्धांतिक प्रक्रिया के तहत सम्मिलित की गई है. इसके अलावा आदि धर्म गुरु पारी लिंगों और आदि क्रांति देवी

जंगों रायतार माता को भी जोड़े तो हमे जो संख्या मिलेगी वह हमारे चौबीस मूल सगा देवों की गणनात्मक

संख्या का सूचक चिन्ह होगा, परन्तु विश्व-निर्माण में हमारे गोंडवाना-जगत की इस महत्वपूर्ण बहु-प्रशंसिय

चौबीस मूल वंशोत्पादक कुल-देवताओं के योगदान को दुनिया नकार नहीं सकती।

 इसी संदर्भ में कोयतूर सगा-जगत के चिंतन और सोधक् मान्यवर ऋषि मसराम ने भी अपने शोध-लेख में जानकारी भी दी है, कि कोयतूर

धर्म जगत में आदिम समाज के आधदेव लिंगों और जंगो रायतार, इनसे चार शाखाएं निर्मित हुई। 

          (१) राजा

       कोलासुर (काली) २. सेनापति-मायको सुगाल ३. तत्ववेत्ता-होरा जोती ४. देवदूत-तुरपोऊ-याल (महाकाली) इन

चारो को ४, ५, ६, ७, देवों को २२ देव बनाया गया. इस संदर्भ में चार कुल सगा देवों के २२ देव आध देवता लिंगों

और जंगो, यही हमारे २४ देवताओं की संख्या है। इसकी मूल देवताओं को वंश में ही हमारे सम्पूर्ण गोंडवाना-

जगत निहित है।


                     इस संदर्भ में प्रोफेसर चौहान ‘भारतीय शूर वन्य जमात गोंड’ में लिखते हैं, उसे भी हमे गोंडी तर्क-कसौटी में कसना होगा । बुढादेव ने इस सृष्टि का निर्माण किया है, बारह गोंड देवताओं ने इस सृष्टि का निर्माण किया है। 

गोंड बारह देवताओं का धार्मिक रूप व व्यवहार आज भी पुरानी रीति से है । इसके देवता भी प्रथक हैं । इनका देवता

बूढ़ा है, जिसमे बड़ादेव भी समाहित हैं, जो सभी देवी की सहयोग से बना है। बूढ़ादेव समूह से बना होगा ऐसा भी

लोग बताते हैं । कुछ भी हो तो भी गोंड लोगों के विश्व-निर्माण में चौबीस देवताओं का विशिष्ट महत्व है। इसलिए

कोयतूर-जगत के धार्मिक, सामाजिक और व्यवहारिक जीवन-मूल्यों की मौलिकता को समझें तभी हम कोयतुर-

जगत को करीब से समझ सकेगें अन्यथा नही। इसी संदर्भ में हम एक और प्रसिद्ध गोंडी साहित्यकार मान्यवर

लिखारी सिंह वट्टी के लेख ‘गोंडी संस्कृति का प्रतीत अशोक चक्र’ का प्रसंगांश भी उल्लेख करते हैं। हमे उनके

विवेचनात्मक तथ्यों पर विशेष ध्यान देना होगा । कोया वंश चक्र में धम्म-चक्र का स्वरूप स्वयं ही स्पष्ट है। इसका

पूर्व स्वरूप तथा विकसित संकल्प राजा अशोक ने अपने शिल्पकला में स्पष्ट किया है। जिसमे राजा अशोक ने

सिंह मुद्रा शांति-चक्र का रहस्योदघाटन प्राचीन-काल में अनार्य गोंड कितने ही आर्यों के पूर्व से ही भारत में

निवास कर रहे हैं। अशोक के चौबीस चक्र गोंड देवताओं के चौबीस बहुप्रशंसिय वंशोत्पादक याने बुद्ध धर्म में से

चौबीस चक्र आभास होता है। यह भी अत्यंत सूचक तथा सोचनीय कल्पना है कि गौतम बुद्ध भी मुरीय गोंड थे,

इसलिए गोंडी संस्कृति के संकेत तथा कल्पना उनके धर्म चक्र में मिलता है। आगे लिखते हैं कि धम्म-चक्र हिन्दू

की कल्पना तथा पुराणों में कही गई बात ठीक नही है। धम्म-चक्र गोंडी-संस्कृति का शत प्रतिशत प्रतिबिम्ब है।

मूल चक्र गोंडी संस्कृति की प्रतीक है। मूल स्त्रोत धम्म-चक्र का गोंगो संस्कृति ही है। हमारी भूल के कारण हिन्दू

समाज के लोग, गुमराह करने के लिए नहीं चूकते कि धम्म चक्र हिन्दू का ही अंग है। अब हमे सजग होना होगा

तथा स्पष्ट समझना होगा कि हमारा राष्ट्रीय चिन्ह धम्म चक्र (अशोक-चक्र) ही गोंडी संस्कृति का मूल स्त्रोत है।  

सारांश यह है कि गोंडवाना-जगत की उत्पत्ति और हमारी सगा-समाजिक संरचना में हमारे मूल धार्मिक और

व्यवहारिक जीवन मूल्यों में सदैव उन्नति हित रीति-नीति का सीधा संबंध मोटे तौर पर प्रकृति सदृश्य नियम की

उस सृजन-प्रक्रिया (धरती-जगत की दिव्य-शक्ति, वनस्पति-जगत की दिव्य-शक्ति, जीव-जगत की दिव्य-शक्ति) में

अंतर्नीहित शक्ति की दिव्य ज्योति का ही संक्षेप में हमारी यही एकात्मक गोंडी तत्वज्ञान और दर्शन की मौलिक

कथावस्तु रहा और है, जो जंगम और स्थावर जीव-धारियों के लिये सर्वथा उन्नत एवं समृद्ध दिव्य शक्ति रहा है

और है। वह गोंडवाना के गौरवशाली अतीत का सदैव एक स्वर्णिम पृष्ठ रहा और है। हम गोंडवाना-वासियों को

उस दिव्य-ज्ञान पर गर्व रहा है और है। उसकी मौलिक ज्ञान और तथ्य आज विज्ञान सम्मत भी है । जिस युग में हम

सिधु घाटी सभ्यता के धनी थे, उस काल में पश्चिम की आनेक् जातियां असभ्य एवं बर्बर जीवन व्यतीत किया

करती थी । इस बात का भी हमे ध्यान रहे कि बहुत संभव है, इससे भी अधिक व प्राचीन अवशेष भारत की

रलगर्भा भूमि के निचे दबे पड़े हो, इसलिए भी गोंडवाना में चहूँमुखी खोज की आज आवश्यकता जान पड़ती है,

क्योंकि महत्वपूर्ण नवीन जानकरियां तभी हमे प्राप्त हो सकेगा। आज हमारे पास इस बात के ठोस प्रमाण हैं कि

किसी समय पृथ्वी का सम्पूर्ण भूखण्ड २X१० की घात ८ वर्ग किमी. (८ करोड़ वर्ग मील) के एक मात्र महाव्दीपके रूप में था। उस आदिमयुगीन महाव्दीप आज ‘पेंजिया’ के नाम से जाना जाता है ।

             लगभग १९ करोड़ वर्ग जुरेसिक काल में यह दो विशाल महाव्दिप में बट गया और लारेशिया (यूरेशिया, ग्रीनलैंड, उतरी अमरीका तथा ‘गोंडवाना लैंड’ (आफ्रिका, अरब, भारत, दक्षिण अमरीका, ओरोनिया, अंटार्कटिका) नाम दिये गये । लगभग १२ करोड़ वर्ष पूर्व गोंडवाना लैंड भी दो भागों में विभक्त हो गया. आज के लगभग ४५ करोड़ वर्ष पूर्व अर्थात, आडोबिशियन-काल तक दक्षिणी ध्रूव संभवत: वहाँ था, जहां आज सहारा का मरुस्थल है।  

                           🙏 जय सेवा 🙏


                           ✊जय बिरसा✊


                        🏹 जय आदिवासी🏹

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